संस्मरण >> सोबती वैद संवाद सोबती वैद संवादकृष्णा सोबती कृष्ण बलदेव वैद
|
2 पाठकों को प्रिय 306 पाठक हैं |
हिन्दी के दो उपन्यासकार कृष्णा सोबती और कृष्ण बलदेव वैद अपने-अपने अनुभवों के साथ....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
हिन्दी के दो उपन्यासकार कृष्णा सोबती और कृष्ण बलदेव वैद
अपने–अपने लेखकीय अनुभव के साथ इस लम्बे संवाद के हवाले से एक दूसरे के आमने-सामने हैं। दो कलमें, दो अलग-अलग रचनात्मक प्रतिक्रियाएँ, दो शिल्प, दो शैलियाँ, दो दृष्टियाँ-दो दृष्टिकोण और यह सभी विभिन्नताएँ समाहित होती हैं एक ही
अनुशासन में।
दो लेखकों के साहित्यिक तेवर, तरेर-तुर्शी, सहमति-असहमति, विवाद-विमर्श ‘सोबती-वैद संवाद’ में से उजागर होती हैं। समाज और राजनीति में लेखकीय उपस्थिति और लेखकीय जीवन में जो कुछ भी मौजूद है—साहित्य-पाठक, आलोचक समाज, संगठन-संस्थान, प्रकाशन व्यवस्था और तंत्र, नागरिक के रूप में लेखक की नैतिक संहिता, इन सभी पहलुओं को पड़तालता यह संवाद साहित्य के हर पाठक के लिए अपूर्व कृति है। इसका सहज-सरल पाठ पाठकों को आश्वस्त करेगा।
एक दिन दो बड़े मिल बैठे और बातें चल निकलीं—गुजरे हुए ज़माने की, अगले ज़मानों की। वर्तमान तो बेशक हर पहलू से उन बातों में शामिल रहा। बातों का सिलसिला दशकों के आर-पार फैलता रहा—अपने समय को सीधे पढ़ने, समझने और लगातार ढीठ होते हुए युग की बेगैरत निर्लज्ज आँखों में आँखें डालकर देखते रहने के संकल्प के साथ।
हमारे दो महत्त्वपूर्ण लेखक, कृष्णा सोबती और कृष्ण बलदेव वैद। शिमला के राष्ट्रपति निवास का उर्वर वातावरण और दशकों का सहेजा, रचा और निभाया हुआ बौद्धिक उत्तेजन और रचनात्मक ताप—‘सोबती-वैद संवाद’ इन्हीं तत्त्वों के संयोग और संयोजन का परिमाण है।
इस संवाद में से गुज़रते हुए हम अपने देखे हुए वक़्त को अपने दो विशिष्ट रचनाकारों की नज़र से एक बार फिर देखते हैं और आज के नेपथ्य की आहटें सुनने लगते हैं। इस अनौपचारिक बातचीत में आप दो अलग-अलग वैचारिक मुखड़ों को पहचानते हैं, उनकी वैचारिक प्रक्रिया को और रचनात्मक पाठ की गहराइयों को भी इन दो कलमों की अपनी-अपनी धड़कनें भी सुनी जा सकती हैं—जिनसे ‘ज़िन्दगीनामा’, दिलो-दानिश’, ‘उसका बचपन’, ‘गुज़रा हुआ ज़माना’, ‘हम हशमत’, ‘ऐ लड़की’, ‘विमल उर्फ़ जाएँ तो जाएँ कहाँ’ और ‘काला कोलाज’, जैसी क्लासिक हो चली कृतियाँ कैसे और कब रची गईं, कौन-सी बेचैनी किस किताब के पन्नों पर साकार हुई, कैसे और किस ब्राँड का काग़ज़ और किस नाम का पेन था जो सृजनात्मक घटित का साक्षी रहा—यह सभी कुछ इस संवाद में उजागर होता है।
और उजागर होता है वह पूरा युग भी जिसमें बँटवारा हुआ, आज़ादी मिली, गांधी की हत्या हुई, देश की बहाली के नये स्वप्न शुरू हुए, नयी विचारधाराओं ने नये हौसले दिए, उत्तर आधुनिकता ने किस्म-किस्म के अन्त घोषित किए, और आखिर में भूमंडलीकरण ने सब कुछ को झंझोड़ डाला। यह सब इस संवाद का हिस्सा है। और इसीलिए हर अपूर्व मुलाकात की तरह अधूरी होते हुए भी, यह अनूठी किताब हमें एक मुकम्मल पाठकीय स्मृति देकर ख़त्म होती है।
दो लेखकों के साहित्यिक तेवर, तरेर-तुर्शी, सहमति-असहमति, विवाद-विमर्श ‘सोबती-वैद संवाद’ में से उजागर होती हैं। समाज और राजनीति में लेखकीय उपस्थिति और लेखकीय जीवन में जो कुछ भी मौजूद है—साहित्य-पाठक, आलोचक समाज, संगठन-संस्थान, प्रकाशन व्यवस्था और तंत्र, नागरिक के रूप में लेखक की नैतिक संहिता, इन सभी पहलुओं को पड़तालता यह संवाद साहित्य के हर पाठक के लिए अपूर्व कृति है। इसका सहज-सरल पाठ पाठकों को आश्वस्त करेगा।
एक दिन दो बड़े मिल बैठे और बातें चल निकलीं—गुजरे हुए ज़माने की, अगले ज़मानों की। वर्तमान तो बेशक हर पहलू से उन बातों में शामिल रहा। बातों का सिलसिला दशकों के आर-पार फैलता रहा—अपने समय को सीधे पढ़ने, समझने और लगातार ढीठ होते हुए युग की बेगैरत निर्लज्ज आँखों में आँखें डालकर देखते रहने के संकल्प के साथ।
हमारे दो महत्त्वपूर्ण लेखक, कृष्णा सोबती और कृष्ण बलदेव वैद। शिमला के राष्ट्रपति निवास का उर्वर वातावरण और दशकों का सहेजा, रचा और निभाया हुआ बौद्धिक उत्तेजन और रचनात्मक ताप—‘सोबती-वैद संवाद’ इन्हीं तत्त्वों के संयोग और संयोजन का परिमाण है।
इस संवाद में से गुज़रते हुए हम अपने देखे हुए वक़्त को अपने दो विशिष्ट रचनाकारों की नज़र से एक बार फिर देखते हैं और आज के नेपथ्य की आहटें सुनने लगते हैं। इस अनौपचारिक बातचीत में आप दो अलग-अलग वैचारिक मुखड़ों को पहचानते हैं, उनकी वैचारिक प्रक्रिया को और रचनात्मक पाठ की गहराइयों को भी इन दो कलमों की अपनी-अपनी धड़कनें भी सुनी जा सकती हैं—जिनसे ‘ज़िन्दगीनामा’, दिलो-दानिश’, ‘उसका बचपन’, ‘गुज़रा हुआ ज़माना’, ‘हम हशमत’, ‘ऐ लड़की’, ‘विमल उर्फ़ जाएँ तो जाएँ कहाँ’ और ‘काला कोलाज’, जैसी क्लासिक हो चली कृतियाँ कैसे और कब रची गईं, कौन-सी बेचैनी किस किताब के पन्नों पर साकार हुई, कैसे और किस ब्राँड का काग़ज़ और किस नाम का पेन था जो सृजनात्मक घटित का साक्षी रहा—यह सभी कुछ इस संवाद में उजागर होता है।
और उजागर होता है वह पूरा युग भी जिसमें बँटवारा हुआ, आज़ादी मिली, गांधी की हत्या हुई, देश की बहाली के नये स्वप्न शुरू हुए, नयी विचारधाराओं ने नये हौसले दिए, उत्तर आधुनिकता ने किस्म-किस्म के अन्त घोषित किए, और आखिर में भूमंडलीकरण ने सब कुछ को झंझोड़ डाला। यह सब इस संवाद का हिस्सा है। और इसीलिए हर अपूर्व मुलाकात की तरह अधूरी होते हुए भी, यह अनूठी किताब हमें एक मुकम्मल पाठकीय स्मृति देकर ख़त्म होती है।
प्रिय पाठकों,
इस लम्बे ‘संवाद’ के साथ दो समकालीन आपकी
पाठ्य-सामग्री में
शामिल होने की धृष्टता कर रहे हैं। संयोग ही था कि बिना पूर्वानिर्धारित
रूपरेखा के हमलोग बातचीत को बैठे और वह खासी लम्बी चल निकली।
दोनों ओर से अपने-अपने विचार कथ्य में सम्प्रेषित होते रहे। सहमति-असहमति होती रही और प्रतिक्रियाएँ एक-दूसरे के तर्क में छनती रहीं। दोनों दिशाओं को चौकस करती रहीं। व्यक्तित्व में से उभरते लेखन और लेखक दोनों अपने-अपने को अभिव्यक्त करते चले।
रचनात्मकता के स्तर पर अपने-अपने अनुभवों को बाँटना दोनों के निकट मूल्यवान रहा।
उच्च अध्ययन संस्थान के निदेशक मृणाल मीरी के सुझाव पर संस्थान के सेमीनार रूम की रिकार्डिंग-सुविधाएँ हमें उपलब्ध थीं। उस ऐतिहासिक कक्ष में ‘संवाद’ करते हुए उसमें जज़्ब बौद्धिक जिज्ञासा और उत्तेजना ने ही लेखक और लेखन की अनुशासित प्रक्रियाओं को टटोलने को उत्साहित किया होगा।
रिकार्डिंग के बाद इस लम्बे संवाद को सुना तो हम दोनों ही परेशान हुए। कहीं ‘विचार’ शब्दों को फलाँग रहे थे, कहीं ‘वाचन’ के टुकड़े वाक्य की तटस्थता को घूर रहे थे कहीं ‘कथ्य’ का विस्तार समय में पगे तर्क को फीका कर रहा था। फिर भी कुल मिलाकर संवाद पुख़्ता सुन पड़ता था और लेखकीय अनुभव में सना हुआ लचकीला भी।
हमने निर्णय लिया कि रिकार्डिंग को ट्रांस्क्राइब करवा लिया जाए।
लम्बा काम था पर जब सम्पन्न हुआ तो हम दोनों के चाहते हुए भी ‘संवाद’ ठंडे बस्ते में चला गया। जब बरसों बाद खुला तो उसे ‘लिखित’ में परिवर्तित करने के दौरान इसका वर्तमान पाठ उभरा जो आपके हाथों में है।
दोनों ओर से अपने-अपने विचार कथ्य में सम्प्रेषित होते रहे। सहमति-असहमति होती रही और प्रतिक्रियाएँ एक-दूसरे के तर्क में छनती रहीं। दोनों दिशाओं को चौकस करती रहीं। व्यक्तित्व में से उभरते लेखन और लेखक दोनों अपने-अपने को अभिव्यक्त करते चले।
रचनात्मकता के स्तर पर अपने-अपने अनुभवों को बाँटना दोनों के निकट मूल्यवान रहा।
उच्च अध्ययन संस्थान के निदेशक मृणाल मीरी के सुझाव पर संस्थान के सेमीनार रूम की रिकार्डिंग-सुविधाएँ हमें उपलब्ध थीं। उस ऐतिहासिक कक्ष में ‘संवाद’ करते हुए उसमें जज़्ब बौद्धिक जिज्ञासा और उत्तेजना ने ही लेखक और लेखन की अनुशासित प्रक्रियाओं को टटोलने को उत्साहित किया होगा।
रिकार्डिंग के बाद इस लम्बे संवाद को सुना तो हम दोनों ही परेशान हुए। कहीं ‘विचार’ शब्दों को फलाँग रहे थे, कहीं ‘वाचन’ के टुकड़े वाक्य की तटस्थता को घूर रहे थे कहीं ‘कथ्य’ का विस्तार समय में पगे तर्क को फीका कर रहा था। फिर भी कुल मिलाकर संवाद पुख़्ता सुन पड़ता था और लेखकीय अनुभव में सना हुआ लचकीला भी।
हमने निर्णय लिया कि रिकार्डिंग को ट्रांस्क्राइब करवा लिया जाए।
लम्बा काम था पर जब सम्पन्न हुआ तो हम दोनों के चाहते हुए भी ‘संवाद’ ठंडे बस्ते में चला गया। जब बरसों बाद खुला तो उसे ‘लिखित’ में परिवर्तित करने के दौरान इसका वर्तमान पाठ उभरा जो आपके हाथों में है।
कृष्णा सोबती : कृष्ण बलदेव वैद
सोबती : ख़ुशामदीद के.बी.। राष्ट्रपति निवास के इस ऐतिहासिक सेमिनार रूम
में आज शाम ‘संवाद’ के लिए आपकी सहमति पाकर मैं गर्व
महसूस कर
रही हूँ। ऐसी शामें दुर्लभ होती हैं और संयोग से ही जुड़ती हैं। ठीक जगह,
ठीक समय और दो समकालीन लेखक। वक़्त के गहरे गुँथीले भाव का एहसास है जिसे
हम जैसे दो हम उम्र लेखक ही बाँट सकते हैं।
आज यह याद करना अच्छा लग रहा है कि हम लोग बरसों-बरसों पहले शिमला में एक बार मिले थे। शायद दिसम्बर का महीना था। इस वक़्त वह लम्बी अवधि पुरानी नहीं लग रही। लगता है, कल ही की बात है। के.बी. कभी लिखी गई पुराने पाठ की पंक्ति की तरह वह शाम जेहन में कौंध रही है।
मैं अपनी छोटी बहन सुषी के यहाँ मेहमान थी। दिसम्बर-जनवरी में शिमला में होनेवाले ‘स्नोफाल’ की उम्मीद में आई थी। पिछले दो-एक दिन से बर्फ़ पड़ने के आसार लग रहे थे।
हम लोग शाम को चाय के लिए बैठे ही थे कि फ़ोन बजा। फ़ोन मेरे लिए था और आप फ़ोन पर थे। दिल्ली से आए थे और बैरियर से बोल रहे थे। मैंने घर का पता दिया और आप दस मिनट में हमारे साथ थे। चाय मेज़ पर लगी थी और किचन से कुछ फ्रा़ई होने की गंध आ रही थी। पुख़ारी का पाइप दीवार की अँगीठी से छत तक सटा था। और ख़ासे बड़े ड्राइंग-रूम में मद्धम-मद्धम सेंक छोड़ रही था। मेहमान और मेज़बान में संवाद शुरू ही हुआ था कि बाहर के ग्लेज्ड़ बरामदे की खिड़कियों पर सेमल की रुई के-से फाहे गिरने लगे। हवा के साथ नन्हे-नन्हे फाहे तिरने लगे !
बर्फ़ मुबारक़ ! अपने साथ बर्फ़ लेते आए हैं और आप। मौसम की बरकत है। के.बी. उसके बाद बहुत बार शिमला आई हूँ पर वैसी शाम को न मौसम ने दोहराया और न ही हम सबने एक साथ मिलकर।
याद कर सकती हूँ आपकी ब्लू जर्सी और अपने बहनोई बिहारी की ग्रे और सुषी की लाल स्ट्रैच पैंट और पीली जर्सी। बर्फ़ ने सहसा इन रंगों को और गहरा दिया था। चाय के बरतन उठा लिये गए थे और काँच के गिलासों में तरल इतराने लगा था। पनीर की प्लेट कबाब में बदलकर ताजी हो गई थी। ‘चियर्स-चियर्स’। बातचीत करते-करते आपने सुझाव दिया—हम लोग क्यों न ‘डेविको’ में चलकर बैठें।’
नहीं, नहीं समरहिल से माल इतना नज़दीक नहीं। मेज़बान कुछ हैरान हुए।
क्या मौसम की शान में कुछ भूल हुई !
ड्रिंक-केबिनेट खोलकर वोद्का पेश की गई। मगर डेविको का प्रस्ताव अपनी जगह मौजूद था। हम लोग कार से विक्टरी टनल से आगे उतरे और आर्मी हैडक्वार्टर की चढ़ाई चढ़ने लगे। सैन्ट टामस चर्च के सामने से होते हुए डेविको जा पहुँचे। बर्फ़ लगातार पड़ रही थी। डेविको का बैंड, बर्फ़ का मौन तरन्नुम और उस सजीली शाम में पाँव थिरकने को मचलने लगे !
उस शाम को भला अब कहाँ ढूँढ़ने जाएँगे। ख़यालों में ही। वैसे समय के उस दौर के गुज़र जाने का कोई मलाल नहीं।
वैद : कृष्णा, गर्व और गुँथीले भाव का अहसास मुझे भी हो रहा है, उतना ही जितना आपको। बरसों पहले यहीं शिमला में एक-दूसरे के साथ गुज़ारी उस शाम को आपने जिला दिया, कृष्णा ! उस अनुपम अनुभव की स्वप्निल-सी याद मुझे यदा-कदा आती रहती है। तब हमारे बीच कोई बाक़ायदा बातचीत नहीं हुई थी, अब होने जा रही है, और मैं आशा करता हूँ कि इससे हमारी इस मुलाकात को एक और गहराई और पुख़्तगी मिलेगी। हम दोनों सच्चे मायनों में समकालीन हैं—एक ही इलाके में पैदा हुए और पढ़े, करीब-करीब हम उम्र भी हैं, और विभाजन की विभीषिका में से गुजरे हैं। यह जरूर है कि मैं बरसों अपने देश से गैरहाजिर रहा, लेकिन उस गैरहाज़िरी के दौरान भी आपसे सम्पर्क ही नहीं दोस्ती भी बनी रही दूरी ने उसमें कोई दरार पैदा नहीं की।
आज यह याद करना अच्छा लग रहा है कि हम लोग बरसों-बरसों पहले शिमला में एक बार मिले थे। शायद दिसम्बर का महीना था। इस वक़्त वह लम्बी अवधि पुरानी नहीं लग रही। लगता है, कल ही की बात है। के.बी. कभी लिखी गई पुराने पाठ की पंक्ति की तरह वह शाम जेहन में कौंध रही है।
मैं अपनी छोटी बहन सुषी के यहाँ मेहमान थी। दिसम्बर-जनवरी में शिमला में होनेवाले ‘स्नोफाल’ की उम्मीद में आई थी। पिछले दो-एक दिन से बर्फ़ पड़ने के आसार लग रहे थे।
हम लोग शाम को चाय के लिए बैठे ही थे कि फ़ोन बजा। फ़ोन मेरे लिए था और आप फ़ोन पर थे। दिल्ली से आए थे और बैरियर से बोल रहे थे। मैंने घर का पता दिया और आप दस मिनट में हमारे साथ थे। चाय मेज़ पर लगी थी और किचन से कुछ फ्रा़ई होने की गंध आ रही थी। पुख़ारी का पाइप दीवार की अँगीठी से छत तक सटा था। और ख़ासे बड़े ड्राइंग-रूम में मद्धम-मद्धम सेंक छोड़ रही था। मेहमान और मेज़बान में संवाद शुरू ही हुआ था कि बाहर के ग्लेज्ड़ बरामदे की खिड़कियों पर सेमल की रुई के-से फाहे गिरने लगे। हवा के साथ नन्हे-नन्हे फाहे तिरने लगे !
बर्फ़ मुबारक़ ! अपने साथ बर्फ़ लेते आए हैं और आप। मौसम की बरकत है। के.बी. उसके बाद बहुत बार शिमला आई हूँ पर वैसी शाम को न मौसम ने दोहराया और न ही हम सबने एक साथ मिलकर।
याद कर सकती हूँ आपकी ब्लू जर्सी और अपने बहनोई बिहारी की ग्रे और सुषी की लाल स्ट्रैच पैंट और पीली जर्सी। बर्फ़ ने सहसा इन रंगों को और गहरा दिया था। चाय के बरतन उठा लिये गए थे और काँच के गिलासों में तरल इतराने लगा था। पनीर की प्लेट कबाब में बदलकर ताजी हो गई थी। ‘चियर्स-चियर्स’। बातचीत करते-करते आपने सुझाव दिया—हम लोग क्यों न ‘डेविको’ में चलकर बैठें।’
नहीं, नहीं समरहिल से माल इतना नज़दीक नहीं। मेज़बान कुछ हैरान हुए।
क्या मौसम की शान में कुछ भूल हुई !
ड्रिंक-केबिनेट खोलकर वोद्का पेश की गई। मगर डेविको का प्रस्ताव अपनी जगह मौजूद था। हम लोग कार से विक्टरी टनल से आगे उतरे और आर्मी हैडक्वार्टर की चढ़ाई चढ़ने लगे। सैन्ट टामस चर्च के सामने से होते हुए डेविको जा पहुँचे। बर्फ़ लगातार पड़ रही थी। डेविको का बैंड, बर्फ़ का मौन तरन्नुम और उस सजीली शाम में पाँव थिरकने को मचलने लगे !
उस शाम को भला अब कहाँ ढूँढ़ने जाएँगे। ख़यालों में ही। वैसे समय के उस दौर के गुज़र जाने का कोई मलाल नहीं।
वैद : कृष्णा, गर्व और गुँथीले भाव का अहसास मुझे भी हो रहा है, उतना ही जितना आपको। बरसों पहले यहीं शिमला में एक-दूसरे के साथ गुज़ारी उस शाम को आपने जिला दिया, कृष्णा ! उस अनुपम अनुभव की स्वप्निल-सी याद मुझे यदा-कदा आती रहती है। तब हमारे बीच कोई बाक़ायदा बातचीत नहीं हुई थी, अब होने जा रही है, और मैं आशा करता हूँ कि इससे हमारी इस मुलाकात को एक और गहराई और पुख़्तगी मिलेगी। हम दोनों सच्चे मायनों में समकालीन हैं—एक ही इलाके में पैदा हुए और पढ़े, करीब-करीब हम उम्र भी हैं, और विभाजन की विभीषिका में से गुजरे हैं। यह जरूर है कि मैं बरसों अपने देश से गैरहाजिर रहा, लेकिन उस गैरहाज़िरी के दौरान भी आपसे सम्पर्क ही नहीं दोस्ती भी बनी रही दूरी ने उसमें कोई दरार पैदा नहीं की।
|
लोगों की राय
No reviews for this book